Monday, 19 August 2019

ऋग्वैदिक काल की सामाजिक व्यवस्था

Rigvedic period social system

ऋग्वैदिक आर्य विभिन्न जनों में विभाजित थे। जन विश मे, विश् ग्राम में, और ग्राम गृह या कुल में विभक्त थे। समाज की सबसे छोटी इकाई गृह या परिवार थी इसका मुखिया गृहपति होता था और यह सामान्यतः परिवार का पिता होता था अर्थात यह पितृ प्रधान परिवार था। इस परिवार में पत्नी की भी स्थिति महत्वपूर्ण थी। ऋग्वेद में एक स्थान पर जायेदस्तयम् शब्द मिलता है जिसका अर्थ है पत्नी ही गृह है। शुनः शेप ऋजास्व एवं दिवालिये जुआरी दृष्टान्तों से स्पष्ट है कि पिता की स्थिति सर्वोच्च थी, यह परिवार संयुक्त परिवार था क्योंकि अन्य सभी सम्बन्धियों के लिए (चाचा, चाची, नाना, नानी, भतीजा आदि) एकही शब्द नप्तृ का उल्लेख मिलता है।

वर्ण व्यवस्था:-
ऋग्वेद से ही वर्ण व्यवस्था की शुरूआत होती है वर्ण के दो अर्थ हैं एक वरण करना अथवा चुनना एवं दूसरा रंग ऋग्वेद के नवें मण्डल में एक व्यक्ति कहता है ’’मैं कवि हूँ मेरा पिता वैद्य हैं और मेरी माता आटा पीसने वाली है विभिन्न कार्यों को करते हुए भी हम लोग एक साथ रहते हैं’’ यह कार्य के आधार पर समाज का विभाजन दर्शाता है। ऋग्वेद से पता चलता है कि आर्य गौर वर्ण के थे जबकि अनार्य श्याम वर्ण के इस तरह रंग के आधार भी विभाजन की शुरूआत हुई।

प्रारम्भ में आर्य तीन वर्णों ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य में विभाजित थे। ऋग्वेद के दशवें मण्डल के पुरुष सूक्त में पहली बार चारों वर्णों का एक साथ उल्लेख मिलता है जिसमें एक आदि पुरुष के मुख से ब्राहमण भुजाओं से क्षत्रिय जाघों से वैश्य एवं पैरों से शूद्र की उत्पत्ति दिखाई गयी।

"ब्राहमणोडस्य मुखम् आसीत्। बाहुः राजन्यः कृता।।
उरुतदस्यद्वेश्यः पादभ्याँ। शुद्रो अजायत्।।’’

दास प्रथा:- ऋग्वेद में दास प्रथा का उल्लेख मिलता है। दास दासियों दोनों का उल्लेख है।


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