ऋग्वैदिक समाज में स्त्रियों की दशा अत्यन्त उच्च थी। उनके सभी तरह के अधिकार प्राप्त थे केवल सम्पत्ति का अधिकार प्राप्त नही था यह अधिकार बाद में गुप्तकाल में पहली बार याज्ञवल्य स्मृति में प्राप्त होता है। सामान्यतः उनके निम्न अधिकार थे।
- विवाह की आयु: ऋग्वैदिक काल में वयस्क होने पर ही (लगभग 16 वर्ष की आयु) विवाह होता था।
- उपनयन संस्कार: पुरुषों की तरह स्त्रियों का भी उपनयन संस्कार होता था यह संस्कार शिक्षा से सम्बन्धित था। इसी संस्कार के बाद वेद पढ़ने का अधिकार प्राप्त होता था ऋग्वेद काल में बहुत सी विदुषी स्त्रियों का उल्लेख मिलता है जैसे-अपाला, घोसा, लोपा, मुद्रा, शिक्ता आदि।
- राजनीतिक अधिकार: स्त्रियां सभा समिति एवं विदभ में भाग ले सकती थी।
- विधवा विवाह:- ऋग्वेद में विधवा विवाह का भी उल्लेख है।
- बहुपति प्रथा:-ऋग्वेद से पता चलता है कि समाज में बहुपति प्रथा भी विद्मान थी।
- नियोग प्रथा:- ऋग्वेद में नियोग प्रथा का उल्लेख है इस प्रथा के अन्तर्गत पति के विदेश होने पर या 10 वर्षों से अधिक अनुपस्थित होने पर नपंुसक होने पर स्त्रियां किसी नजदीकी रिश्तेदार से पुत्र की कामना कर सकती थी। इसमें देवर को विशष रूप से मान्यता प्राप्त थी। इससे उत्पन्न पुत्र को पति की ही संन्तान माना जाता था। इससे उत्पन्न सन्तान को क्षेत्रज के नाम से जाना जाता है वहीं कुमारी कन्या (अमाजू) से उत्पन्न सन्तान कनीन तथा विधवा (पुनर्भू) से उत्पन्न सन्तान को पुनर्भव के नाम से जाना जाता था।
स्त्रियों में निम्न कुप्रथायें नही थी।
1. सती प्रथा
2. पर्दा प्रथा
3. दहेज प्रथा
ऐसी स्त्रियाँ जो जीवन भर विवाह नही करती थी केवल शिक्षा प्राप्त करती थी उन्हें अमाजू कहा जाता था।
इस समय विवाह के दो प्रकार प्रचलित थे अनुलोम एवं प्रतिलोम विवाह, अनुलोम विवाह में पुरुष उच्च वर्ण का होता था जबकि महिला निम्न वर्ण की इसे मान्यता भी प्राप्त थी। इसके विपरीत प्रतिलोम विवाह में पुरुष निम्न वर्ण एवं महिला उच्च वर्ण की थी इसे सामाजिक मान्यता नही प्राप्त थी।
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