उत्तर वैदिक काल (Social condition of Post Vedic period) में आर्यों की सामाजिक व्यवस्था का आधार वर्णाश्रम व्यवस्था थी यद्यपि वर्ण व्यवस्था की नींव ऋग्वैदिक काल में ही पड़ गयी थी परन्तु वह स्थापित उत्तर-वैदिक काल में ही हुई।
- समाज में चार वर्ण ब्राहमण, राजन्य, वैश्य और शूद्र थे। इनमें ब्राहमणों की प्रतिष्ठा सर्वाधिक थी। ऋग्वैदिक काल में कुल सात पुरोहित थे। उत्तर वैदिक काल में उनकी संख्या बढ़कर 17 हो गई इनमें ऐसे पुरोहित जिन्हें ब्रम्ह का ज्ञान होता था वे ब्राहमण कहलाये इनका मुख्य कार्य यज्ञ और अनुष्ठान था।
- दूसरा वर्ण राजन्य था ऐतरेय ब्राहमण से पता चलता है कि इसकी स्थिति ब्राहमणों से श्रेष्ठ थी।
- वैश्व वर्ण की उत्पत्ति विश् शब्द से हुई समाज का यही वर्ग कर देता था इसीलिए इसका नाम अनस्यबलकृत भी पड़ गया।
- शूद्रों की दशा समाज में निम्न थी उसका कार्य अन्य वर्गों की सेवा करना था उत्तर-वैदिक काल में इस वर्ण का उपनयन संस्कार बन्द कर दिया गया जिससे उसकी सामाजिक दशा का हास हुआ। उसके कुछ अन्य नाम पड़ गये जैसे- अनस्यप्रेष्य: (अन्य वर्णों का सेवक) कामोत्थाप्स (मनमाने ढंग से उखाड़ फेंके जाने वाले) यथा काम बध्य (इच्छानुसार वध किया जाने वाला) इससे पता चलता है कि समाज में इनकी दशा गिर रही थी।
- इस समय समाज में एक अन्य वर्ग रथकार का स्थान महत्वपूर्ण था इसका भी उपनयन संस्कार ऊपर के तीन वर्णों की भाँति होता था।
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