Monday, 19 August 2019

ऋग्वैदिक काल की राजनितिक व्यवस्था

Political-system-Post-Vedic-period
भारत में आर्य अलग-अलग कबीलों (जन) के रूप में आये थे। आर्य कोई जाति या नस्ल नहीं, बल्कि भाषाई/सांस्कृतिक समूह थे। ऋग्वैदिक जनों के राजाओं के बीच आपस में संघर्ष होता रहता था ऐसा प्रथम संघर्ष हरियूपिया नामक स्थान पर मिलता है। भारत में आने पर इनका 2 तरह से संघर्ष हुआ। 


प्रथम संघर्ष:-
 ऋग्वेद से पता चलता है कि हरियूपिया नामक स्थान पर याब्यावती नदी के तट पर तुर्वश और बीचवृन्त तथा श्रृजंयो के बीच संघर्ष हुआ। हरियूपिया की पहचान हड़प्पा से की जाती है। इस युद्ध में श्रृंजयों की विजय हुई यही संघर्ष आगे बढ़कर दस राज्ञ युद्ध में बदल गया।


द्वितीय संघर्ष (दस राज्ञ युद्ध) :
(स्थान परुष्णवी (रावी) नदी के किनारे, उल्लेख ऋग्वेद के सातवें मण्डल में - भारत वंश (त्रित्स वंश) के राजा सुदास के पुरोहित विश्वामित्र थे सुदास ने विश्वामित्र की जगह वशिष्ठ को अपना पुरोहित बना लिया फलस्वरूप विश्वामित्र ने दस जनों को इकठ्ठा कर सुदास के विरूद्ध युद्ध कर दिया परन्तु विजय सुदास को ही मिली।


इस दस-जनों में पंच जन का नाम विशेष रूप से उल्लेख है-पुरु, यदु, अनु द्रुहा तुर्वश तथा अन्य में अलिन, पक्थ भलानस, विषाणी, शिव।
दस राज्ञ युद्ध में दोनों तरफ से आर्य एवं अनार्यों ने भाग लिया था।


आर्यों का जीवन प्रारंभ में अस्थायी था। क्योंकि ये लोग कबीले से संबंधित थे,पशुचारण इनका मुख्य पेशा था। कृषि द्वितीयक या गौण पेशा था। इसे हीन कर्म माना जाता था। भूमि को आर्य अपनी संपत्ति नहीं मानते थे, पशुओं को वे अपनी संपत्ति मानते थे।
 जन > विश > ग्राम > कुल या गृह
नोटः- जन शब्द 275 बार तथा विश का उल्लेख 170 बार ऋग्वेद में हुआ है।

प्रशासन की सबसे छोटी इकाई कुल/परिवार थी। कुल / परिवार  का मुखिया कुलप /कुलपति कहलाता था।बहुत सारे परिवार मिलकर ग्राम बनता था ग्राम का मुखिया ग्रामणी कहलाता था। ऋग्वेद में ग्रामणी शब्द का 30 बार उल्लेख हुआ है। कई ग्राम मिलकर विश बनाते थे तथा विश का मुखिया विशपति कहलाता था। जन जिसे कबीला भी कहा जाता था का मुखिया जनस्य गोपा (राजा) होता था , जनस्य गोपा का ऋग्वेद में 275 बार उल्लेख हुआ है।  राजा का पद युद्ध की आवश्यकता के अनुकूल होता था। उसका कोई धार्मिक कार्य /अधिकार नहीं होता था।राजा कबीले का संरक्षक होता था। इस काल में राजा ने सम्राट की उपाधि धारण नहीं की थी। राजपद का दैवीकरण/ राजा का धर्म से राजनिति में जुङाव नहीं था। इस काल में राजा साधारण मुखिया के समान था। कबीले के लोग स्वैच्छिक रूप से बलि नामक कर देते थे। कर अनिवार्य या स्थायी नहीं था।राजकोष खाली था। स्थाई सेना नहीं थी तथा स्थाई प्रशासनिक अधिकारी भी नहीं थे। कर व्यवस्था स्थाई नहीं होने के कारण पेशेवर नौकरशाही का विकास नहीं हो पाया था। इस काल में शासन का लोकप्रिय स्वरूप राजतंत्र था। हालांकि कुछ गणों का भी उल्लेख मिलता है। गण का उल्लेख ऋग्वेद में 46 बार मिलता है।

बलिः दैनिक उपभोग की वस्तुयें , दूध,दही,फल,फूल,अनाज,दालें,ऊन आदि पर दिया जाने वाला कर।
नोटः- प्रजा राजा को उपहार देती थी जिसे बलि कहा गया उत्तर वैदिक काल में यह कर हो गया (बाध्य करके वसूला गया भाग कर होता है) अतः पूरे वैदिक काल में कर लिया जाता था ऐसा माना जाता है।

राजा के पदाधिकारी:- ऋग्वेद से राजा के सहयोगियो का पता चलता है। इन सहयोगियों में पुरोहित, सेनानी और ग्रामणी प्रमुख थे। पुरोहितों का स्थान सर्वोच्च था इन्हें रत्निन कहा जाता था अन्य अधिकारियों में गुप्तचरों को स्पर्श एवं पुलिस को उग्र कहा गया है।
सैन्य संगठन- ऋग्वैदिक काल में राजा के पास कोई स्थायी सेना नही थी परन्तु इसकी आवश्यकता पड़ने पर एक अस्थायी सेना जिसे मिलिशिया कहा जाता था का गठन कर लिया जाता था। इसका संचालन व्रात गण, ग्राम और सर्ध नामक कबायली टोलियां करती थी।


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