सैंधव सभ्यता में धार्मिक जीवन
सैंधव सभ्यता से बड़ी संख्या में प्राप्त स्त्री मृण्मूर्तियों तथा मुहरों के ऊपर नारी आकृतियों के अंकन के कारण सैंधव समाज को मातृदेवी का उपासक कहा जा सकता है। हड़प्पा से प्राप्त एक मूर्ति जिसके गर्भ से पौधा निकलता हुआ दर्शाया गया है, उसे मातृदेवी या उर्वरता कि देवी कहा गया है।
मेवी के अलावा मोहनजोदड़ो से प्राप्त से प्राप्त एक मुहर, जिस पर एक योगी, योग कि पदमासन मुद्रा में बैठा है और जिसके दाई ओर चीता और हाथी तथा बाई ओर गैंडा और भैंसा अंकित है, को पशुपति या रूद्र देवता कहा गया है। विशाल स्नानांगार का प्रयोग धार्मिक अनुष्ठान तथा सूर्य पूजा में होता रहा होगा। कालीबंगा से प्राप्त अग्निकुंड के साक्ष्य के आधार पर कहा जा सकता है कि अग्नि, स्वास्तिक आदि की पूजा की जाती थी। ताबीजों की प्राप्ति के आधार पर जादू-टोने में विश्वास तथा कुछ मुहरों पर बलि प्रथा के दृश्य अंकन के आधार पर बलिप्रथा का भी अनुमान लगाया जाता है।
1. पूर्ण शवाधान: पूरे शरीर को जमीन के अंदर दफना देना। यही सर्वाधिक प्रचलित तरीका था।
2. आंशिक शवाधान: शरीर के कुछ भागों को नष्ट होने के बाद दफनाना।
3. कलश शवाधान: शव को जलाकर राख को कलश में रखकर दफनाना।
सैन्धवकालीन सामाजिक जीवन
उत्त्खनन से मिली बड़ी संख्या में नारी मृण्मूर्तियां संकेत देती है कि संभवतः सैन्धव समाज मातृसत्तात्मक तथा सामाजिक व्यवस्था का मुख्य आधार परिवार था। हड़प्पावासी फैशन के प्रति जागरूक थे। आभूषण पुरुष भी पहनते थे, महिला पुरुष दोनों ही बड़े बाल रखते थे तथा बाल बनाने के असंख्य तरीके थे। महिलाएँ सिंदूर तथा लिपस्टिक का प्रयोग करती थी। सैन्धववासी शाकाहारी तथा मांसाहारी दोनों प्रकार के भोजन का सेवन करते थे। गेंहू , जौ, चावल, तिल, सरसों, दाले, आदि प्रमुख खाद्य फसल थे। सैन्धववासी भेंड़, बकरी, सुँवर, मुर्गी तथा मछलियों का भी सेवन करते थे।
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