पौराणिक काल में छत्तीसगढ़ : छत्तीसगढ़ का इतिहास
"छत्तीसगढ़" वैदिक और पौराणिक काल से ही विभिन्न संस्कृतियों के विकास का केन्द्र रहा है। इस क्षेत्र का उल्लेख प्राचीन ग्रंथो जैसे 'रामायण' और 'महाभारत' में भी है।
प्राचीनकाल में दक्षिण कोशल का विस्तार पश्चिम में त्रिपुरी से ले कर पूर्व में उड़ीसा के सम्बलपुर और कालाहण्डी तक था। पौराणिक काल में इस क्षेत्र को 'कोशल' प्रदेश कहा जाता था, जो कि कालान्तर में दो भागों में विभक्त हो गया - 'उत्तर कोशल' और 'दक्षिण कोशल', और 'दक्षिण कोशल' ही वर्तमान छत्तीसगढ़ कहलाता है।
प्राचीन काल में इस क्षेत्र के एक नदी महानदी का नाम उस काल में 'चित्रोत्पला' था। जिसका उल्लेख मत्स्यपुराण, वाल्मीकि रामायण तथा महाभारत के भीष्म पर्व में वर्णन है -
"मन्दाकिनीदशार्णा च चित्रकूटा तथैव च।
तमसा पिप्पलीश्येनी तथा चित्रोत्पलापि च।।"
मत्स्यपुराण - भारतवर्ष वर्णन प्रकरण - 50/25
"चित्रोत्पला" चित्ररथां मंजुलां वाहिनी तथा।
मन्दाकिनीं वैतरणीं कोषां चापि महानदीम्।।"
- महाभारत - भीष्मपर्व - 9/34
"चित्रोत्पला वेत्रवपी करमोदा पिशाचिका।
तथान्यातिलघुश्रोणी विपाया शेवला नदी।।"
ब्रह्मपुराण - भारतवर्ष वर्णन प्रकरण - 19/31
वाल्मीकि रामायण में स्पष्ट उल्लेख है की इस क्षेत्र में स्थित सिहावा पर्वत के आश्रम में निवास करने वाले श्रृंगी ऋषि ने ही अयोध्या में राजा दशरथ के यहाँ पुत्र प्राप्ति के लिए पुत्र्येष्टि यज्ञ करवाया था। राम ने अपने वनवास की अवधि इस क्षेत्र में आये थे।
दण्डकारण्य नाम से प्रसिद्ध वनाच्छादित प्रान्त उस काल में भारतीय संस्कृति का प्रचार केन्द्र था। यहाँ के एकान्त वनों में ऋषि-मुनि आश्रम बना कर रहते और तपस्या करते थे। इनमें वाल्मीकि, अत्रि, अगस्त्य, सुतीक्ष्ण प्रमुख थे।
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